बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण

क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध



स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
भावार्थ : तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥31॥



यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥
भावार्थ : हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं॥32॥



अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
भावार्थ : किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥


अकीर्तिं चापि भूतानि  कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति- र्मरणादतिरिच्यते ॥
भावार्थ : तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥



भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥
भावार्थ : और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥


अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥
भावार्थ : तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥36॥


हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥
भावार्थ : या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥37॥



सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
भावार्थ : जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥

लगातार सफलता के लिए अपनाएं ये सूत्र





हर इंसान की ताकत जो नहीं है, उसको पाने और जो पा लिया, उसे बचाने की कवायद में खर्च हो जाती है। सफलता पाने और उसे कायम रखने पर भी यही बात लागू होती है। सफलता के लिए व्यक्ति जद्दोजहद करता है और जब कामयाबी की मंजिल को छू लेता है, तो वहां पर बने रहने का संघर्ष शुरू हो जाता है।

सवाल यही बनता है कि व्यक्ति ऐसा क्या करे कि ताकत और कामयाबी दोनों ही कायम रहे? हिन्दू धर्म शास्त्रों में इनका जवाब बेहतर तरीके से ढूंढा जा सकता है। जिनमें आए कुछ प्रसंग साफ करते हैं कि ताकत और सफलता को संभाल पाना आसान नहीं है, किंतु असंभव भी नहीं।

शास्त्रों में बताए कुछ अधर्मी चरित्र जिनमें रावण से लेकर कंस और दुर्योधन से लेकर शिशुपाल के जीवन चरित्र बताते हैं कि शक्ति, सफलता और तमाम सुखों को पाने के बाद दूसरों को कमतर समझने से पैदा दंभ या अहं उनके अंत का कारण बना।

इन चरित्रों से यही सूत्र मिलते है कि सफल होकर या शक्ति पाने पर उसके हर्ष या मद में इतना न डूब जाएं कि उससे पैदा हुआ अहं आपको आगे बढ़ाने के बजाए पीछे धकेल दे या कामयाबी का सफर रोक दे। इसलिए अगर लगातार सफलता की चाहत है तो इसके लिए सबसे जरूरी है कि कामयाबी मिलने पर सरल, विनम्र और शांत रहें। अहंकारी या घमण्डी न बने, बल्कि हितपूर्ति की भावना को दूर रख उससे दूसरों को भी मदद और राहत देने की भावना से आगे बढ़ें। कामयाब होने पर भी अपने दोष या कमियों पर ध्यान दें और दूर करें।

यह बातें सफलता को पाने के बाद भी आपको मन और व्यवहार दोनों तरह से संतुलित और शांत रखेगी। जिससे आप पूरी तरह से एकाग्र, स्थिर, सजग, योजना और सहयोग के साथ सफलता के सिलसिले को जारी रख पाएंगे।

ऐसी स्त्री के संग रहती है लक्ष्मी




व्यावहारिक जीवन के लिए धन सुखी रहने का एक साधन है। धार्मिक हो या सांसारिक नजरिया धन को जीवन की अहम जरूरत बताया गया है। वैसे सुख देव और दु:ख दानव शक्ति का प्रतीक भी है। इसलिए सुख देने वाला हर व्यक्ति, स्थान और साधन देवता के समान पूजित भी हो जाता है।

इसी बात को सामने रख सोचें तो भारतीय धर्म परंपराओं में स्त्री को भी लक्ष्मी रुप मानने के पीछे सुख देने वाली उसकी वह शक्ति है, जो वह मां, बेटी और अन्य सभी रिश्तों के द्वारा सृजन, पालन, सेवा के रूप में परिवार, समाज या जगत को देती है। जिनसे कुटुंब खुशहाल और सुखी होता है। धार्मिक मान्यता भी यही है कि देवता खासतौर पर धन और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी उसी स्थान पर वास करती है। जहां दरिद्रता और आलस्य न हो। यही कारण है कि जो स्त्री घर की व्यवस्थाओं और माहौल को अपने व्यवहार, आचरण और विचारों से पवित्र रखती है, उसे लक्ष्मी और उस घर में लक्ष्मी का वास माना जाता है।

शास्त्रों में भी बताया गया है कि लक्ष्मी ऐसी स्त्रियों पर हमेशा प्रसन्न रहती है। किंतु इसके लिए उसका व्यवहार और आचरण कैसा होना चाहिए? जानते हैं -

- सच बोलने वाली स्त्री। जिस स्त्री के बोल, व्यवहार और विचारों में सच समाया होता है, उससे लक्ष्मी बहुत खुश रहती है।

- पतिव्रता स्त्री यानि पति के लिए हर तरह से समर्पित और सेवा का भाव रखने वाली।

- जिस स्त्री का तन, मन और व्यवहार साफ हो।

- धार्मिक यानि देवता, शिक्षित और ब्राह्मणों को सम्मान देने वाली स्त्री।

- घर आए अतिथि की सेवा-सत्कार करने वाली स्त्री।

- सहनशील स्त्री यानि जो स्त्री पति या परिवार के सदस्यों की बड़ी से बड़ी गलती  या दोष को भी माफ कर दे। दूसरे अर्थों में क्षमा का भाव रखने वाली स्त्री।

घर में बंद घड़ी: रुकावट हो सकती है पैसा आने में...

   

पुरानी कहावत है कि समय कभी किसी के लिए नहीं रुकता, हमेशा अपनी गति से चलते रहता है। इसी वक्त को दर्शाने वाली घड़ी सभी के घरों में अवश्य ही होती है। यही घड़ी यदि बंद हो जाए तो, वास्तु-फेंगशुई के अनुसार इसे अशुभ माना जाता है।

वास्तु शास्त्र में हमारे जीवन को सुखी और समृद्धिशाली बनाए रखने के लिए अनेक टिप्स बताई गई है। घर की हर वस्तु का अपना अलग महत्व होता है और उसी के अनुसार उसका प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। इन्हीं में से काफी महत्वपूर्ण घड़ी। घड़ी जहां हमें समय की सही जानकारी देती है वहीं वास्तु के अनुसार से हमारे परिवार के सदस्यों पर सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव पड़ता है। घड़ी भी वातावरण में बहती हुई सकारात्मक ऊर्जा को संकलित करती है जिसका प्रभाव घर के सदस्य पर पड़ता है। बंद घड़ी को हानिकारक माना जाता है। बंद घड़ी नकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाती है और पॉजीटिव एनर्जी का प्रभाव कम करती है।

घर में बंद घड़ी नहीं रखनी चाहिए। यदि कोई घड़ी बंद है तो उसे तुरंत ही चालु करें अन्यथा उसे घर से हटा दें। फेंगशुई की मान्यता है बंद घड़ी से घर में धन की आवक भी प्रभावित होती है।

घड़ी ऐसी जगह लगानी चाहिए जहां से सभी को आसानी से दिखाई दे सके।

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

ऐसी स्त्री होती है पतिव्रता



आज के दौर में हर गृहस्थ पुरूष या अविवाहित, ऐसी स्त्रियों की चाहत या कामना रखता है, जिनके बोल, विचार और व्यवहार से गृहस्थ जीवन स्वर्ग बन जाए। वैसे पति-पत्नी के बीच मधुर संबंधों के लिए दोनों का एक-दूसरे पर पूरा भरोसा और समर्पण ही अहम होता है। चूंकि स्त्री गृहस्थ जीवन की धुरी मानी जाती है। इसलिए यहां हम खासतौर पर समझते हैं कि गृहस्थ जीवन में स्त्री का पति के लिए कैसा भाव, विचार और व्यवहार जरूरी है?

हिन्दू धर्म शास्त्र अनेक ऐसी स्त्रियों के प्रसंगों से भरा है, जिन्होंने अपने पातिव्रत्य के धर्म पालन से पति, परिवार या कुटुंब की संकटों से रक्षा की। जिससे उन्होंने  न केवल स्त्री जाति का मान बढ़ाया, बल्कि हर स्त्री को उसकी ताकत से पहचान कराई। यही कारण है कि वे युग के बदलाव होने पर भी आज भी सुखद गृहस्थ जीवन के लिए स्त्रियों की प्रेरणा और आदर्श हैं। जिनमें सती अनुसूया, सीता सहित अनेक नारियां प्रमुख हैं।

आज के दौर में हर गृहस्थ पुरूष या अविवाहित, ऐसी स्त्रियों की चाहत या कामना रखता है, जिनके बोल, विचार और व्यवहार से गृहस्थ जीवन स्वर्ग बन जाए। वैसे पति-पत्नी के बीच मधुर संबंधों के लिए दोनों का एक-दूसरे पर पूरा भरोसा और समर्पण ही अहम होता है। चूंकि स्त्री गृहस्थ जीवन की धुरी मानी जाती है। इसलिए यहां हम खासतौर पर समझते हैं कि गृहस्थ जीवन में स्त्री का पति के लिए कैसा भाव, विचार और व्यवहार जरूरी है?

हिन्दू धर्म शास्त्र अनेक ऐसी स्त्रियों के प्रसंगों से भरा है, जिन्होंने अपने पातिव्रत्य के धर्म पालन से पति, परिवार या कुटुंब की संकटों से रक्षा की। जिससे उन्होंने  न केवल स्त्री जाति का मान बढ़ाया, बल्कि हर स्त्री को उसकी ताकत से पहचान कराई। यही कारण है कि वे युग के बदलाव होने पर भी आज भी सुखद गृहस्थ जीवन के लिए स्त्रियों की प्रेरणा और आदर्श हैं। जिनमें सती अनुसूया, सीता सहित अनेक नारियां प्रमुख हैं।

इसलिए सती या पातिव्रत्य का पालन करने वाली इन स्त्रियों को सामने रखकर जानें हिन्दू धर्म शास्त्र में बताए गए उन गुणों को जिनसे हर स्त्री की पहचान पतिव्रता के रूप में होती है -

- पति को हमेशा भगवान मानने वाली यानि पति के प्रति हर तरह से समर्पित स्त्री।

- दु:खों से न घबराकर हंसमुख और प्रसन्न रहने वाली।

- हर स्थिति में सुख को खोजने वाली।

- पति में मन रखने वाली।

- पति को सेवा से वश में करने वाली।

- पति के कटु बोल और व्यवहार को भी सहन कर खुश रहने वाली।

- पति के धनहीन, रोगी, दीन या थके होने पर भी सेवा को आतुर रहे।

- संयम रखने, चतुरता यानि व्यावहारिक  समझ रखने वाली।

- पति से संतान उत्पति करने वाली।

- पति को बड़े से बड़े सुख से भी ज्यादा चाहने वाली।

- सधी हुई दिनचर्या, जीवनशैली वाली स्त्री जैसे - सुबह जल्दी उठना, स्वयं और घर को साफ रखना या घर को व्यवस्थित रखना, देव पूजा करना।

- सास-ससुर का हर तरह से ख्याल रखने वाली।

- अतिथि, मेहमान यहां तक कि घर के नौकर से भी विनम्रता और स्नेह से व्यवहार करने वाली।

- पीहर में माता-पिता को भी सुख देने वाली।

सार यही है कि पति और गृहस्थी के  लिए जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को समझे बिना किसी द्वेष भाव से, मन को वश में रख, शौक-मौज की लालसा से दूर, गृहस्थी को धर्म मानकर चलाने वाली स्त्री सही मायनों में सती और पतिव्रता है।

ऐसी कामयाबी जायज़ नहीं..



ज़िंदगी में कामयाब होना कौन नहीं चाहता? जीवन मिलता ही इसीलिये है कि इंसान अपने पुरुषार्थ का भरपूर उपयोग करते हुए ऊंचा मुकाम हासिल  करे। लगन, परिश्रम, समर्पण और अटूट धैर्य को लगातार बनाए रखते हुए जीवन में बड़ी से बड़ी सफलता और मान-सम्मान पाना हर इंसान का मकसद तो होता ही है, अध्यात्म की मानें तो यह सब पाना इंसान का फर्ज भी है।


अब सवाल यह उठता है कि सफलता पाना ज़िंदगी का मकसद तो है पर वह सफलता किन शर्तों पर मिल रही है, यह सोचना भी बेहद अहम् है। सच्चाई, ईमानदारी और सही नीति पर चलकर पाई गई कामयाबी ही जायज भी है और सभी की तारीफ़ के काबिल भी वही है।

हिन्दू धर्म ग्रंथ रामायण इसी तरह इंसान को सावधान करता हुआ कहता है-

 परहित सरिस धर्म नहिं कोई,

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।

अगर इस पर गहराई से विचार करें तो यह उजागर हो जाता है कि नीति और धर्म दोनों का मतलब एक ही होता है। जबकि अनीति को अधर्म कहा जाना पूरी तरह से सही है। यानि जिन कार्यों को करने की प्रेरणा और सीख व्यक्ति को धर्म या धार्मिक शास्त्रों से प्राप्त होती है वे कार्य नीति के अन्तर्गत ही आते हैं। दूसरी तरह यह भी जाहिर है कि जिन कार्यों को धर्म में बुरा, अनैतिक या पाप पूर्ण बताया गया है, वे सब अनीति के दायरे में आते हैं। तरक्की करना, कामयाब होना,  यश-समृद्धि के शिखर को छूना कोई गलत बात नहीं है, पर नैतिकता और जीवन मूल्यों को भूल किसी दूसरे के हक को छीनकर ऊंचा उठना किसी भी नजरिये से जायज़ नहीं है।






इन 7 लोगों को नमस्कार न करें!!!

सनातन धर्म की श्रेष्ठता का कारण उसकी परंपराओं के पीछे इंसानी जीवन से जुड़ी वैचारिक और व्यावहारिक गहराई है। सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक बताई गई अनेक क्रियाएं इंसान के विचार और व्यवहार को अनुशासित रख जीवन को ऊंचा उठाती है।

ऐसी ही एक क्रिया है - नमस्कार। यह शारीरिक मुद्रा पूरी दुनिया में भारतीय होने की पहचान भी है। नमस्कार की मुद्रा असल में सम्मान या स्नेह प्रगट करती है। वहीं इसका असर संबंधों को गहरा ही नहीं करता, बल्कि यह छोटी-सी शारीरिक मुद्रा किसी भी इंसान के व्यक्तित्व, चरित्र और व्यवहार को भी बेहतर बनाती है। क्योंकि दोनों हाथों को मिलाकर, हल्का सा शरीर के झुकाव के साथ किया गया नमस्कार असल में सबसे पहले व्यक्ति के अहं को दूर करता है, जो अनेक मानसिक और व्यावहारिक दोषों का कारण भी है।

नमस्कार द्वारा अभिवादन का यह तरीका दूसरों पर भी अच्छा असर करता है, जो आपके लिए भी सकारात्मक नतीजे देता है। क्योंकि दूसरों को दिया गया सम्मान  बदले में वैसा ही सम्मान, सहयोग और प्रेम लाता है।

चूंकि हर क्रिया और व्यवहार का महत्व मर्यादा के बिना अधूरा है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म शास्त्रों में नमस्कार करने के लिए भी कुछ मर्यादाएं बताई गईं है। जिनका पालन आपके साथ दूसरों के लिए भी हितकारी होती हैं। जानते हैं किसी व्यक्ति से नमस्कार किन-किन स्थितियों में न करें -

जो व्यक्ति दूर हो - ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति आपके अभिवादन को न देख पाए। जिसे अनदेखी समझकर आपके मन में कलह पैदा हो सकता है।

जो व्यक्ति जल में हो - जल में रहने या तैरते वक्त थोड़ी भी चूक जानलेवा हो सकती है। यह ध्यान भंग आपके नमस्कार से भी संभव है।

जो व्यक्ति दौड़ रहा हो - आपके द्वारा किए गए नमस्कार से दौड़ते व्यक्ति की एकाग्रता और लय बिगडऩा उसकी चोट या ठोकर का कारण बन सकता है।

धन के अहंकार से ग्रसित व्यक्ति - ऐसे व्यक्ति से नमस्कार आपके अपमान का कारण भी बन सकता है।

नहाता हुआ व्यक्ति - स्नान का समय नमस्कार के लिए उचित स्थिति नहीं मानी जाती। क्योंकि यह आप और उस व्यक्ति को असहज बना सकती है।

मूढ़ या मूर्ख व्यक्ति - आचरण व व्यवहार की समझ ने होने से ऐसा व्यक्ति नमस्कार की अहमियत नहीं समझता और आपकी भावना को आहत कर सकता है।

जो व्यक्ति अपवित्र हो - किसी कारणवश जैसे मृत्यु संस्कार कर्म या किसी अन्य कारण से अपवित्रता के दौरान कोई व्यक्ति सहज मनोदशा में नहीं होता, तो नमस्कार उचित नहीं है।



ऐसी स्त्री होती है पतिव्रता

आज के दौर में हर गृहस्थ पुरूष या अविवाहित, ऐसी स्त्रियों की चाहत या कामना रखता है, जिनके बोल, विचार और व्यवहार से गृहस्थ जीवन स्वर्ग बन जाए। वैसे पति-पत्नी के बीच मधुर संबंधों के लिए दोनों का एक-दूसरे पर पूरा भरोसा और समर्पण ही अहम होता है। चूंकि स्त्री गृहस्थ जीवन की धुरी मानी जाती है। इसलिए यहां हम खासतौर पर समझते हैं कि गृहस्थ जीवन में स्त्री का पति के लिए कैसा भाव, विचार और व्यवहार जरूरी है?

हिन्दू धर्म शास्त्र अनेक ऐसी स्त्रियों के प्रसंगों से भरा है, जिन्होंने अपने पातिव्रत्य के धर्म पालन से पति, परिवार या कुटुंब की संकटों से रक्षा की। जिससे उन्होंने  न केवल स्त्री जाति का मान बढ़ाया, बल्कि हर स्त्री को उसकी ताकत से पहचान कराई। यही कारण है कि वे युग के बदलाव होने पर भी आज भी सुखद गृहस्थ जीवन के लिए स्त्रियों की प्रेरणा और आदर्श हैं। जिनमें सती अनुसूया, सीता सहित अनेक नारियां प्रमुख हैं।

आज के दौर में हर गृहस्थ पुरूष या अविवाहित, ऐसी स्त्रियों की चाहत या कामना रखता है, जिनके बोल, विचार और व्यवहार से गृहस्थ जीवन स्वर्ग बन जाए। वैसे पति-पत्नी के बीच मधुर संबंधों के लिए दोनों का एक-दूसरे पर पूरा भरोसा और समर्पण ही अहम होता है। चूंकि स्त्री गृहस्थ जीवन की धुरी मानी जाती है। इसलिए यहां हम खासतौर पर समझते हैं कि गृहस्थ जीवन में स्त्री का पति के लिए कैसा भाव, विचार और व्यवहार जरूरी है?

हिन्दू धर्म शास्त्र अनेक ऐसी स्त्रियों के प्रसंगों से भरा है, जिन्होंने अपने पातिव्रत्य के धर्म पालन से पति, परिवार या कुटुंब की संकटों से रक्षा की। जिससे उन्होंने  न केवल स्त्री जाति का मान बढ़ाया, बल्कि हर स्त्री को उसकी ताकत से पहचान कराई। यही कारण है कि वे युग के बदलाव होने पर भी आज भी सुखद गृहस्थ जीवन के लिए स्त्रियों की प्रेरणा और आदर्श हैं। जिनमें सती अनुसूया, सीता सहित अनेक नारियां प्रमुख हैं।

इसलिए सती या पातिव्रत्य का पालन करने वाली इन स्त्रियों को सामने रखकर जानें हिन्दू धर्म शास्त्र में बताए गए उन गुणों को जिनसे हर स्त्री की पहचान पतिव्रता के रूप में होती है -

- पति को हमेशा भगवान मानने वाली यानि पति के प्रति हर तरह से समर्पित स्त्री।

- दु:खों से न घबराकर हंसमुख और प्रसन्न रहने वाली।

- हर स्थिति में सुख को खोजने वाली।

- पति में मन रखने वाली।

- पति को सेवा से वश में करने वाली।

- पति के कटु बोल और व्यवहार को भी सहन कर खुश रहने वाली।

- पति के धनहीन, रोगी, दीन या थके होने पर भी सेवा को आतुर रहे।

- संयम रखने, चतुरता यानि व्यावहारिक  समझ रखने वाली।

- पति से संतान उत्पति करने वाली।

- पति को बड़े से बड़े सुख से भी ज्यादा चाहने वाली।

- सधी हुई दिनचर्या, जीवनशैली वाली स्त्री जैसे - सुबह जल्दी उठना, स्वयं और घर को साफ रखना या घर को व्यवस्थित रखना, देव पूजा करना।

- सास-ससुर का हर तरह से ख्याल रखने वाली।

- अतिथि, मेहमान यहां तक कि घर के नौकर से भी विनम्रता और स्नेह से व्यवहार करने वाली।

- पीहर में माता-पिता को भी सुख देने वाली।

सार यही है कि पति और गृहस्थी के  लिए जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को समझे बिना किसी द्वेष भाव से, मन को वश में रख, शौक-मौज की लालसा से दूर, गृहस्थी को धर्म मानकर चलाने वाली स्त्री सही मायनों में सती और पतिव्रता है।